
कहते हैं कि सपने हमारी मानसिक स्थिति का प्रतिभिम्ब होतें हैं. एक सैनिक हमेशा विजय के सपने देखना चाहता है और एक व्यापारी सदा मुनाफे के ख्याल से ही उठना पसंद करता है. लेकिन ना तो हमेशा विजय मिलती है और ना ही हमेशा मुनाफा होता है. और हमारे सपने आने वाली परिस्थिति का अंदेशा हमें दे ही देते हैं . जब इस कविता का ख्याल मेरे मन में आया और मैंने अपने मित्र ऋषिकांत को बताया, तो हम दोनों ने इसे अलग अलग दृष्टिकोण से देखा, जो शायद हमारी मानसिक स्तिथि का प्रतिनिधित्व करती है. हमारा सपना एक ही था, पर हमारे दिमाग ने उसकी व्याख्या अलग तरीके से करी. इसलिए, चाहे मेरे शब्द हो या उनके, इस कविता का बड़ा हिस्सा हुबहू एक सा ही है, सिर्फ आखिरी के दो छंद अलग हैं.
प्रस्तुत है एक ही कविता के दो रूप, एक ही सच के दो सपने. आपको जो पसंद आये, हमें ज़रूर कमेंट्स के रूप में लिख कर बताएं!
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मेरा सपना
आज दोपहर में आंख लगी
तो घर दिखा , अपनी गली दिखी
अचानक माँ नज़र आई
दरवाज़े पर
नंगे पांव
निवाला हाथ में लिए
सड़क को टकटकी लगाये घूरती
जैसे मेरा ही इंतज़ार कर रही हो
वहीँ लॉन में
पिताजी दिखे
आंखें अख़बार में गड़ाए हमेशा की तरह
चाय की चुस्कियां ले रहे थे
अख़बार में तो जान बसी है आपकी
माँ मेरी ताना देते हुए बोली
उसी से क्यों नहीं कर ली शादी
पिताजी ने अनसुना कर दिया पहले
और चाय की एक और चुस्की ली
फिर मुस्काए ,बोले
अख़बार को चाय बनानी नहीं आती !
अपनी हंसी को दबाये
मेरा मन हुआ कि माँ वोह निवाला मुझे खिला दे
कब से भूखा हूँ ऐसा लगता है
पिताजी आंखें उठाये और मुस्कुरा दें ,
आ गए तुम !
बस अब जब भी खुले, तो मेरी आंखें घर में खुले
उस ख्याल से
लो सकपका के उठ गया हूँ
एक झूठी सच्चाई के पीछे भागता
अपने सपने को भी खो चुका हूँ
ना जाने कितना समय बीत गया है
और कितना दूर आ गए हैं
अब तो वोह भी कब आओगे नहीं पूछते हैं
और एक चीज़ देखी है मैंने
अब वोह कभी खिलखिलाते भी नहीं
सिर्फ मुस्कुरा देते हैं
फिर से उसी ख्वाब में जाना है
उनकी झलक को वापस पाना है
खेल तो देखो
कब से आंखें मूंदे बैठा हूँ
पर नींद भी नहीं आती अब
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ऋषिकांत का सपना
आज दोपहर में आंख लगी
तो घर दिखा , अपनी गली दिखी
अचानक माँ नज़र आई
दरवाज़े पर
नंगे पांव
निवाला हाथ में लिए
सड़क को टकटकी लगाये घूरती
जैसे मेरा ही इंतज़ार कर रही हो
वहीँ लॉन में
पिताजी दिखे
आंखें अख़बार में गड़ाए हमेशा की तरह
चाय की चुस्कियां ले रहे थे
अख़बार में तो जान बसी है आपकी
माँ मेरी ताना देते हुए बोली
उसी से क्यों नहीं कर ली शादी
पिताजी ने अनसुना कर दिया पहले
और चाय की एक और चुस्की ली
फिर मुस्काए ,बोले
अख़बार को चाय बनानी नहीं आती !
अपनी हंसी को दबाये
मेरा मन हुआ कि माँ वोह निवाला मुझे खिला दे
कब से भूखा हूँ ऐसा लगता है
पिताजी आंखें उठाये और मुस्कुरा दें ,
आ गए तुम !
बस अब जब भी खुले, तो मेरी आंखें घर में खुले
उस ख्याल से
मुस्कुरा के उठ गया हूँ
मुस्कान तो होठों से मेरे चिपक सी गयी है
तभी घंटी बजी .....
माँ का फ़ोन आया है
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चित्र- http://farrah.tbfreviews.net/2010/02/dream-spiders/
ऋषिकांत की हिंदी कविताएँ - http://manyyabsurdthoughts.blogspot.com/