February 10, 2014

साथ साथ

क्या तुम्हें याद है वोह दिन
जब कुछ घबराये हुए
कुछ सकुचाऐ हुए

उस अप्रतिम उत्साह से
एक नयी राह पे...
हम साथ-साथ चले थे

अन्‍जानों में अपने ढूंढे
साथ-साथ
छोटे-छोटे पल, छोटी-छोटी खुशियाँ ज़माने से छीनी
साथ-साथ
मकानों को घर बनाया
साथ-साथ
हर एक दिन को यादगार बनाया
साथ-साथ

और कभी खुद को, कभी दुनिया को आज़माने भी तो...
हम साथ-साथ चले थे

फिर अचानक  लकीरों के खेल में तुम आगे निकल गए
मैं हारता रहा और तुम जीतते रहे
अब मिलन होना सम्भव नहीं
मेरी हस्ती का होकर भी कोई महत्व नहीं

पर जब कभी धूल के गुबार को छोड़
सरपट आगे जाते हुए, पीछे देखो
तो बस इतना याद करना कि

कोई था जो गुम गया जीवन की इन गलियों में
कल की चाह में, कल को भुलाने में
उन सपनों की हकी़कत में
जिन्हें सीने से लगाये एक दिन

हम साथ-साथ चले थे...

बहुत दूर गया हूँ कहीं
आगे-पीछे का अब गुमान नहीं
अब बस मैं हूँ और हारने का एहसास हर कहीं
बहुत कुछ है दांव पर फिर भी
जीत की हर दुआ में तुझे ढूँढता हूँ

इन अंजानीं राहों में
तेरे निशान  ढूँढता हूँ

तुझे याद करने का हर एक बहाना  ढूँढता हूँ
बादलों में तेरा चेहरा
और पवन में तेरी आवाज़  ढूँढता हूँ

बहुत दिन हो गए सोए हुए आज
क्यूंकि आँखों में जो अक्स बसा है तेरा
हर रात पलकों से उसे  ढूँढता हूँ

तू बता

उस आसमान को देख कैसे तेरी याद ना आए
आखिर चांद को पाने और तारों को सरताज चढ़ाने के लिये भी तो

हम साथ-साथ चले थे...