November 2, 2011

मोड़

आज युहीं सोचा
चलो यहाँ से मुड़ें
और कुछ बरस पीछे चलें
जहाँ जीवन के अंश छोड़ आए हैं
उस अतीत को टटोलें
कितने सफ़र तय किये
कितनी मंजिलें हासिल की
क्या क्या सीखा
कितनी सीढियां चढ़ी
चलो थोड़ा हिसाब करें
आओ कुछ बरस पीछे चलें

पर यह याददाश्त भी दगा दे रही है
जब पीछे देखा
तो सब धुन्दला पाया
रास्ता तो यही है
पर एक भी राही याद ना आया

यादों कि गलियां कितनी संकरी हैं

चेहरे तो हैं
पर नाम नहीं है
यहाँ रहा हूँ मैं
पर यह मेरा घर नहीं
एक मकान ही है
यहाँ से गुज़रा हूँ में
पर यह मेरी गली नहीं
यह दर सूना ही है
इस दोराहे पर खड़े
कुछ सवाल अंतर्मन से पूछें
आओ कुछ बरस पीछे चलें

जब अंतर्मन में झाँका
तो पाया ज़िन्दगी अधूरे अध्यायों का सार है
हर जगह कुछ उम्मीद छोड़ आया
किसी को अलविदा ना कहा
ना किसी को भूल पाया
कोई किताब बन्द नहीं की
ना ही कहीं पूर्णविराम लगा पाया
शायद इसलिए हर पड़ाव पर सूनापन है
चारों और फैला हुआ
एक खालीपन है
एक बड़ा सा शीशा है
जो ब्रह्मित करता है
कल को आज और आज को कल दिखाता है

उम्मीद का दामन अब थाम लूँ कैसे
पुराने रास्तों पर कदम रखूं कैसे
शायद आज कोई मुलाकात फिर हो जाये
कुछ अंतों का फिर आगाज़ हो जाये
क्या पता कोई ख़त आ जाये
या कोई साथी मिले
हाथ थम जो फिर ले चले
कुछ बरस पहले
हार्दिक आभार

5 comments :

  1. mathur ji... again... take a bow... although the title could be changed to "kuch baras peechhe chale"... but really emotional poem yaar...

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  2. Behtareen... The flow of thoughts, the choice of words, the intent and content.. Very well written.. Bhai mazaa aa gaya..!!

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  3. Mathur Sahab..aanand aa gya padkar..bar bar padne ka mann kar rha hai..kuch panktiya to sidhe hrydya ko chu gayi..ati uttam

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